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आज पूरे देश में जिस तरह की अराजकता फैली हुयी है घोटाला , भ्रष्टाचार ,कालाधन की समस्या ,सुरसा के मुंह की तरह बढती हुयी मंहगाई , विधायको , सांसदों का अशोभनीय आचरण अपराधी अपराध करके आजाद घूम रहे है क्योकि पैसे का बोलबाला हर जगह है जाहिर है एक आम आदमी त्रस्त हो चुका है इस देश के शासन और व्यवस्था से अभी हाल ही में जिस तरह ‘आरुषि ‘ हत्या कांड में सी बी आई ने अपने हाथ खड़े कर लिए हत्या होने के बावजूद यदि कोई अपराधी न पकड़ा जाये तो कानून -व्यवस्था का क्या मतलब ? कई बाते मिल कर हर किसी को परेशान कर देती है ऐसे में यदि ‘उत्सव ‘ नामक शख्स ने राजेश तलवार पर हमला करके उन्हें घायल कर दिया और पकड़ा भी गया तो कोहराम तो मचना ही था क्योकि मीडिया के सामने इतनी खौफनाक वारदात हुयी थी इसमें किसी की जान भी जा सकती थी यह एक ‘आक्रोश’ था मगर इस गुस्से को जायज नहीं ठहराया जा सकता !
कभी -कभी कुछ घटनाये इस तरह की घटती है जो सच में एक लोकतान्त्रिक देश में ईमानदार होने की सजा क्या एक जघन्य मौत के सिवा कुछ नहीं है जैसी बात सोचने पर मजबूर कर देती है ऐसी ही घटना महराष्ट्र के मनमाड में घटी जहाँ तेल मफियायो ने एडिशनल कलेक्टर सोनावणे को जिन्दा जला दिया इस घटना ने याद दिला दी इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की और लखीमपुर में इंडियन आयल के कर्मचारी मंजुनाथ की हत्याओ की
घटनाये दो है एक में इस देश की अराजक व्यवस्था से व्यथित और कुछ न कर पाने की हताशा से जूझ रहे युवा का आक्रोश है दूसरी घटना में बाहुबली और और कानून को मुठ्ठी में रखने वाले वे माफिया सरगना है जिनके सामने ईमानदारी पानी भरती है इनके ‘आक्रोश ‘ का खामियाजा एक आदर्शवादी तथा ईमानदार छवि के आफिसर को भुगतनी पड़ती है तो क्या अब यह मान कर चलना चाहिए की ईमानदार होने से बेहतर है की नाजायज ढंग से पैसा कमाओ अपराध पर अपराध करते जाओ और अपने रसूख के दम पर सब मामले को दबाते चलो
उपरोक्त घटना में यदि एक का ‘आक्रोश ‘ गलत है तो दुसरे का सही कैसे ?!
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