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नारी मन के कुशल चितेरे (भाग – १)-मुंशी प्रेमचंद जी की कृति बूढी काकी

सीधी बात
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(नारी क्या है रहस्यों के आवरण में लिपटी हुयी कोमल हृदय की स्वामिनी या फिर साक्षात् रणचंडी या फिर अपनी वाचालता ,कमनीयता तथा भोलेपन का जादू जगाने वाली चंचल ,चपला सौदामिनी या फिर वह समय के साथ अपने को हर भूमिका में ढाल देने वाली कुशल अभिनेत्री ! जो भी हो नारी मन को समझना साधारण मानव के वश की बात नहीं क्योकि हर महिला अपने आप में खास होती है मगर साहित्य जगत के कथाकार जब अपनी कहानी का महिला पात्र चुनते है तो उसके मनो विज्ञानं को बखूबी पढ़ कर अपनी कहानियो के जरिये समाज के सामने लाते है और चूँकि समाज और साहित्य एक दूसरे के पूरक है इसलिए मेरी छोटी सी कोशिश भर है कि कुछ कथा -कहानिया जिन्हें अपने युग के यशस्वी कथाकारों ने लिखा है उन्हें मै इस मंच पर लाऊ और उन कहानियो के जरिये एक तुलनात्मक विवेचन करके अतीत और वर्तमान में क्या कुछ बदला है नारी के प्रति धारणा और स्वयं नारी के अंदर इस कड़ी में मैंने पहली कहानी मुंशी प्रेमचंद कि “बूढी -काकी ” को लिया है )
जिस समय प्रेमचंद ने इस कालजयी कथा को लिखा होगा तब से ले कर आज तक भला परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्यों की उपेक्षा ,अवहेलना में कोई भी कमी क्या आ पायी है? बूढी काकी ने अपने भतीजे के नाम पूरी जायदाद क्या लिख दी बदले में जिस तरह बुद्धिराम और बहू रूपा
ने मिल कर उनका जीना मुहाल कर दिया हर समय तिरस्कार ,अपमान जहाँ बूढी काकी के प्रति पाठको में हमदर्दी जगाता है वही यह भी दिखाने की कोशिश की गयी है की परिवार के सदस्यों द्वारा बुजुर्गो की उपेक्षा घर के बच्चो को भी बड़े -बूढों के प्रति असम्मानजनक व्यवहार करने की छूट दे देता है बुद्धिराम के दोनों बेटे काकी को सताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते ले दे कर एक छोटी बच्ची लाडली है जो काकी का ख्याल रखती है |
कर्कशा बहू रूपा का दुर्व्यवहार और बूढी काकी द्वारा खाने के प्रति बढते अनुराग के कारण अक्सर काकी को बहुत जली -कटी सुननी पड़ती है यहाँ बालपन और बुढ़ापे की तुलना करके प्रेमचंद जी ने उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की है जहाँ बुढ़ापा और बचपन में कोई अंतर नहीं रह जाता जिस तरह से हमारे घरो के अंदर बुजुर्ग एक प्रलाप करते रहते है उन्हें सुननेऔर देखने की फुर्सत नहीं रहती किसी के पास उन सभी कटु सच्चाइयो का वर्णन किया गया है
रोमांचक मोड़ पर कथा पहुचती है जबकि घर में बुद्धिराम
तथा रूपा के बेटे के तिलक की तैयारी में नाना प्रकार के व्यंजनों बनने के दौरान पूडी,कचौड़ी और आलू की रसेदार सब्जी की सुगंध काकी की पेट की क्षुधा को इतना बढा देता है कि बेचारी पकवान बनाने वाली जगह पर किसी तरह गिरते-पड़ते पहुंच जाती है उसके बाद उनके साथ होने वाले व्यवहार का वर्णन कलम के जादूगर ही कर सकते है उन्हें वहां से उठा कर भतीजे राम कोठरी में पटक देते है बेचारी काकी छप्पन भोग कि कल्पना में डूबती -उतराती रहती है सभी मेहमान विदा हो जाते है आधी रात को लाडली सबसे छुपा कर जो थोडा बहुत खाना लाती है उससे पेट तो काकी का नहीं भरता हाँ पेट की आग उन्हें लाडली का हाथ पकड कर उस स्थान तक ले जाती है जहाँ मेहमानों का जूठा पत्तल पड़ा रहता है वे टटोल -टटोल कर पत्तल का जूठा खा रही है , अचानक रूपा लाडली को खोजती हुयी वहां आजाती है “सामने का दृश्य देख कर उसका सर्वांग सिहर उठता है!” जिसका धन ,जमीन ,जायदाद सब कुछ ले कर वे इस घर की रानी बनी फिर रही थी उसकी मालकिन चचिया सास मेहमानों का जूठा पत्तल हाथ में लिए बैठी थी “हे भगवान !इतना बड़ा पाप ! पश्चाताप की आग ने उसके अंदर की ममता तथा दयालुता को जगा कर उसे एक सामान्य नारी के रूप में परिवर्तित कर दिया उसने अपनी सास को दोनों हाथ से पकड कर उठायाभंडार गृह खोल कर थाली में पकवान सजा कर आंगन में बैठा कर बूढी काकी को खिलाने लगी
इस कहानी की प्रासंगिकता आज के समय में भी उतनी ही है क्योकि आज भी कही बहू सताई जा रही है कही घर के बुजुर्ग इसमें महिलाओ की भूमिका सर्वोपरि है उन्हें तय करना है कि वे अपने अंदर की ममता ,करुणा तथा दया की भावना को न मरने दे तभी वे एक अच्छी माँ ,बहू तथा बेटी बन कर समाज और परिवार को बांध सकती है |

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