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यशपाल जी की कहानी – ‘समय ‘

सीधी बात
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प्रेमचंद के बाद यशपाल एक ऐसे कहानीकार के रूप में सामने आते है जिन्होंने मानवीय सरोकार के अलावा “परिवार ” के अंदर होने वाली घटनाओ को अपनी कथा का आधार बनाया प्रस्तुत कहानी एकमध्यमवर्गीय परिवार के अवकाश प्राप्त पिता की कहानी है जो बुजुर्ग का तमगा लगा कर रहना नहीं चाहते वे नयी पीढ़ी के साथ तालमेल बिठा कर रहना चाहते है मगर ऐसा क्या होता है कि उनके अहं को एक झटका लगता है मगर क्या वे टूट कर बिखर जाते है ? या फिर वे नियति से समझौता कर अपने लिए एक नया रास्ता खोज कर उस पर चल पड़ते है इन्ही अन्तर्द्वन्दो का बारीक़ विश्लेष्ण करती हुयी यह कहानी उन लोगो के लिए है जो रिटायरमेंट के बाद अपने को परिवार के लिए बोझ समझना शुरू कर देते है |
पापा जी का रिटायर होने का समय ज्यो -ज्यो पास आ रहा था वे जैसे अपने आप को दिलासा देने कि कोशिश करने में लग गए चलो भाई हफ्ते में एक दिन कि छुट्टी का जिस बेसब्री से इंतजार रहता था वैसी छुट्टी अगर दफ्तर से हमेशा के लिए मिल जाये तो फिर इसमें निरुत्साह होने जैसी बात क्या है ? एक तो दूसरे के आदेश -पालन से छुट्टी और अध्ययन -अध्यापन का बढ़िया अवसर , अपने सगे -सम्बन्धियों और इष्ट -मित्र से मिलने का समाज में सभी से घुलने -मिलने का अवसर ही अवसर मसलन अवकाश प्राप्त करके अपनी सभी इच्छाओ कि पूर्ति करने का बढ़िया मौका मिल जाता है फिर लोग रिटायरमेंट से घबराते क्यों है ? पापा जी नियम -कानून से रहने वाले व्यक्ति थे जिसका पालन वे अपने अवकाश प्राप्ति के बाद भी करते रहे वे रोज शाम को मम्मी जी के साथ बाजार तक घूमने के लिए जाते थे बचपन में जब मम्मी -पापा तैयार हो कर निकलते थे तो बच्चो को साथ ले कर जाने से बचने के लिए आया और नौकर से कह कर उन्हें इधर -उधर हटा दिया जाता था मगर एक दिन परिवार कि छोटी बच्ची मम्मी जी से आ कर लिपट गयी कि हम बच्चे भी बाजार जायेंगे तब से शाम को घूमने जाते समय
किसी न किसी बच्चे को और कभी -कभी सभी बच्चो को हज़रतगंज तक घूमने जाने का मौका मिलने भी लगा और वहाँ पहुंच कर अपनी मनपसन्द आइसक्रीम -चाकलेट तथा अन्य वस्तुओ कि फरमाइश पूरी की जाने लगी रोचक मोड़ आता है कहानी में जबकि पापा जी के अवकाश प्राप्ति के बाद उनका घूमने जाने की आदत में बदलाव तो नही आया मगर मम्मी जी के पांव में दर्द के चलते वे अब पापा जी का साथ नहीं दे पाती है और पापा जी चूँकि अकेले जाना नहीं चाहते इसलिए घर के किसी न किसी बच्चे को साथ ले कर जाना पड़ता है मगर अब समय बदल चुका है वे बच्चे जो पापा जी के साथ हर समय बाजार जाने को तैयार रहते थे अब साथ जाने से कतराने लगे क्योकि एक उम्र विशेष अथवा टीन एज में एक अजीब कशमकश का दौर चलता है जिसमे बच्चो को बड़े -बुजुर्गो का साथ अटपटा लगने लगता है फिर ऐसे में यदि पार्क ,रेस्तरां और होटल में संगी -साथी दिख जाते है तो उनका करुणा और बेचारगी भरी मुस्कान को झेलना काफी कठिन हो जाता है इसका यह अर्थ कदापि नहीं की पापा जी अन्य बुजुर्गो के समान कोई उपदेश या जमाने में खामियां निकालने जैसी बोरिंग बाते करते थे बल्कि उनका अनुभव और ज्ञान का दायरा अत्यंत व्यापक था जो युवाओ को भाता ही है मगर उससे क्या बीस -बाईस वर्ष के लड़के -लडकियो को निजी आजादी भी चाहिए होती है मगर उस दिन रोज की तरह शाम होते – होते पिताजी की आवाज आने लगी ” गंज तक चलने के लिए कोई है ! ” मगर हर कोई जैसे उनकी आवाज को अनसुना कर रहा था वो छोटी बच्ची जो कभी बचपन में मम्मी के साथ लिपट कर घूमने जाने की जिद करती थी उससे कहने पर दीदी को उसने जवाब दिया -“तुम भी क्या दीदी …..बोर …बुड्ढो के साथ कौन बोर हो !” अपने भरसक उस बड़ी हो चुकी बच्ची ने आवाज दबा कर ही बात कही थी मगर वह धीमी आवाज पापा के कानो तक पहुच चुकी थी पापा कुछ देर के लिए चुपचाप बैठे ही रहे नजर फर्श पर जमा कर चेहरे पर एक विषाद भरी मुस्कान के साथ मगर फिर उठे हैंगर से कोट उतारा और मम्मी को आवाज दे कर कहाँ “सुनो, कई बार पहाड़ से छड़ियाँ लाए है , तो कोई एक तो दो !”
एक छड़ी उठा कर मैंने कमरे में रख ली थी | पापा को उत्तर दिया , “एक तो यही है चाहिए ?” छड़ी कोने से उठा कर पापा के सामने कर दी |
“हाँ ,यह तो बहुत अच्छी है !” पापा ने छड़ी की मूठ पर हाथ फेरते हुए कहा और छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गए , मानो हाथ की छड़ी को टेक कर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया |

(मेरी प्रिय कहानियां से साभार )

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