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प्रकृति का रुदन

सीधी बात
सीधी बात
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विवेकशील मानव ने भला किसे बख्श दिया !
जी भर कर लूटा जिसने उसे भरपूर दिया |
फिर वह चाहे नारी हो या हो अद्भुत प्रकृति |
दोहन की यह सतत प्रक्रिया |
पहाड़ो से ले कर जंगल तक कुछ न बचा |
पाप करके उसे कभी गंगा में धोने की लालसा |
तो कभी बद्री ,केदार के नाम पर धाम की लालसा |
हर चीज को व्यापार बना दिया |
पैसे की भूख के आगे कभी सुनी तुमने पहाड़ो की क्रन्दन ?
रो रही है प्रकृति संभल जा अभी भी नादाँ !
उसके आंसुओ के बाढ़ में सब कुछ बहेगा |
रोक दो विकास के नाम पर विनाश की तैयारी |
छोड़ दो वनों , जंगलो और पहाड़ो को रे मूर्ख मानव !
प्रकृति के इस सौन्दर्य को मत बेच बाजार में |
मंहगी पड़ेगी तुझे अपनों के साथ की जाने वाली होशियारी |
मांग क्षमा पहाड़ो के देवता से न रौंद अब तू उन्हें अपनी कामना से|

(उत्तराखंड में भयानक आपदा ने जैसे हम सभी को एक चेतावनी दी है , प्रकृति के इतने खिलाफ जा कर हम किसका भला कर रहे है |उपर्युक्त भावाभिव्यक्ति कविता तो नहीं यह मेरे अंतर्मन में उठे कुछ उद्गार है जिन्हें कलमबद्ध करने की कोशिश की है )

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