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माफिया ,तस्कर, नक्सलवाद इनके सिर पर किसका हाथ ?

सीधी बात
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हम आम आदमी जिनका न कुछ राजनीति से लेना -देना है और न ही किसी सत्तापक्ष कौन कहे किसी अन्य को भी अपने लिखने और माथा पच्ची करने के एवज में कोई सुनवाई होने वाली है ! मगर हम भारतवासी ठहरे भावुक और बेवकूफ इस गौरवशाली भारत देश के आजाद नागरिक अपनी टांग हर जगह अड़ा ही देते अब नक्सलवाद का इतना भयानक तांडव होने के बाद भला इतनी सी बात क्यों नहीं किसी के समझ में आ रही है कि जिस देश की राजनीति पूरी व्यवस्था पर भारी पड़ रही हो वहां भला नक्सलवाद क्या मामूली चोरी -डकैती भी रोक पाना एक बड़ी समस्या है वैसे तो जनता की यादाश्त बहुत कमजोर होती है इसलिए चन्दन तस्कर वीरप्पन हो सकता हो किसी को न याद हो जिसने एक समय जिस तरह का तमिलनाडु ,केरल और कर्नाटक में आतंक मचाया था उस पर किसी की भी पकड़ बना पाना बहुत कठिन था | आये दिन अपहरण ,फिरौती ,फारेस्ट आफिसर को मौत के घाट उतारना किसी का भी अपहरण करके उसे बंधक बना कर रखना यही उसका काम था मगर जिसके हौंसले इतने बुलंद हो उसे किसी पहुंचे हुए बड़ी शख्सियत के सपोर्ट के बिना इस तरह के मनमानी करने का औचित्य समझ में नहीं आता | आख़िरकार वही हुआ जैसाकि होता है हर बुरा आदमी कभी -कभी रावण की तरह अपने सोने की लंका में आने वाले खतरे से बेखबर और बेअंदाज हो कर मनमानी तरीके से अत्याचार करता रहता है मगर अचानक उसकी ताकत कम होने लगती है यही हुआ वीरप्पन के साथ एक दिन किसी मामूली चोर की भांति किसी मुठभेड़ में मारा गया और उसका आतंक खत्म हुआ | यही नक्सलवाद के साथ भी हो रहा है राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल की कमी के कारण यह समस्या खत्म होने वाली नहीं है | नक्सलवाद का तांडव जबकि पूरे देश में हो रहा हो नेताओ के मारे जाने पर जिस तरह का सियापा मचा उसी तरह का सियापा सुकमा के पुलिस अधीक्षक के मारे जाने पर क्यों नहीं मचा ? आज फर्जी मुठभेड़ को ले कर पुलिस महकमे पर सवाल पर सवाल किये जा रहे है मगर आतंकवाद का नासूर आज क्या कहर बरपा रहा है बोधिगया के मन्दिर पर हुए हमले के बारे में एक निंदा प्रस्ताव पारित कर देना बस अपनी भूमिका का निर्वहन है समझ में नहीं आता कि किसे कठघरे में खड़ा करे ! इस देश में जिस तरह की घटिया राजनीति चल रही है उसका भगवान मालिक है अपराधियों को पूरी छूट है कि वह जो मर्जी वह कर गुजरे मगर पुलिस की गलतियों को बस इस तरह से रेखांकित करना कि उसने एक बहुत गलत काम को अंजाम दिया है , जेलों के अन्दर बंद आतंकवादियो पर जिस तरह के हमले होते है आखिर उसके पीछे किसका हाथ होता है ? इन सबसे इतर एक जो सबसे बड़ा प्रश्न उभर कर सामने आता है कि बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के पुलिस को भी अपनी भूमिका निभाने की आजादी क्यों नहीं दी जाती ? जिस तरह से आज C .B . I . को तोते के संज्ञा से नवाजा जा रहा है कौन सा ऐसा क्षेत्र है जो राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना चल पा रहा है | आज अगर पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ का इल्जाम है तो इसके जड़ में कहीं न कहीं वह घटिया राजनीति ही तो है जिसके आड़ में खूंख्वार अपराधियों को भी पुलिस द्वारा पकडे जाने पर किसी न किसी तरह से बेल मिल जाना और उनका आसानी से छूट जाना एक कारण है यह ठीक है कि फर्जी मुठभेड़ के नाम पर कई निर्दोषों को भी अपने जान से हाथ धोना पड़ता है मगर एक आतंकवादी हमले में कितने निर्दोषों कि जान जाती है उसका हिसाब कौन देगा ? आज हालात यह है कि जहाँ निजाम बदला पूरे पुलिस महकमे में भारी फेरबदल हो जायेगा राज्य के पुलिस कमिश्नर तक को मंत्रियों के इशारे पर तबादला कर दिया जाता है | ऐसे में भला किसी भी ईमानदार अधिकारी को कही टिकने कहाँ दिया जाता है ,जब हर मामले में राजनीति होगी तो भला पुलिस मनोबल इस लायक रहता ही कहाँ है कि वह जनता को आतंकवाद या फिर गुंडाराज से बचा पाए फर्जी मुठभेड़ गलत है मगर आतंकवाद तो इस देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है उससे निबटने के लिए भला आज तक कौन सा पुख्ता सुरक्षा इंतजाम हो पाया है अगर नक्सलवाद तथा आतंकवाद से निबटना है तो राजनीतिक आका लोग अपनी घटिया मनोवृत्ति पर रोक लगाना सीखे |

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